उत्तराखण्ड की महान विभूति गोविन्द बल्लभ पंत की पुण्यतिथि पर विशेष आलेख…

उत्‍तराखण्‍ड उत्तराखण्ड की महान विभूतियां जीवन परिचय लेख हरिद्वार

हरिद्वार (पंकज चौहान) – गोविंद बल्लभ पंत भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम के सेनानी, स्वतंत्र भारत के दूसरे गृहमंत्री तथा उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे। उन्होंने भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने और जमींदारी प्रथा को खत्म कराने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। उन्होंने हिंदू संहिता विधेयक पारित कराया और हिंदू पुरुषों के लिए एकपत्नीत्व अनिवार्य बना दिया था। उन्होंने हिंदू महिलाओं को तलाक और वंशानुगत संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार दिलाएं थे। भारत रत्न का सम्मान उनके ही गृहमन्त्रित्व काल में शुरू किया गया था, यही सम्मान उन्हें सन 1957 में उनके स्वतन्त्रता संग्राम में योगदान तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भारत के गृहमंत्री के रूप में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए भारत के तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रदान किया गया था।

जन्म – 10 सितम्बर सन 1887 ग्राम खूंट, अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड.
देहावसान – 7 मार्च सन 1961 दिल्ली.

प्रसिद्ध देशभक्त राजनीतिज्ञ और आधुनिक उत्तर प्रदेश के निर्माण की नींव रखने वाले पंडित गोविन्द वल्लभ पंत का जन्म  पिता मनोरथ पंत के घर 10 सितम्बर सन 1887 को ग्राम खूंट, अल्मोड़ा, उत्तराखंड में हुआ था। उनकी आरम्भिक शिक्षा अपने नानाजी की देख-रेख में अल्मोड़ा में घर पर ही हुयी थी। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की थी। इलाहाबाद में आचार्य नरेंद्र देव, डा.कैलाश नाथ काटजू उनके सहपाठी थे। इलाहाबाद उस समय भारत की महान विभूतियों जवाहरलाल नेहरु, मोतीलाल नेहरु, सर तेजबहादुर सप्रु, सतीशचन्द्र बैनर्जी तथा सुन्दरलाल सरीखों का संगम था तो वहीं विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के विद्वान प्राध्यापक जैनिग्स, कॉक्स, रेन्डेल, ए.पी. मुखर्जी सरीखे विद्वान थे। इलाहाबाद में गोविन्द वल्लभ को इन महापुरुषों का सान्निध्य सम्पर्क तो मिला ही साथ में जागरुक, व्यापक और राजनीतिक चेतना से भरपूर वातावरण भी मिला। वही से गोविन्द बल्लभ सामाजिक –सार्वजनिक कार्यो में रूचि लेने लगे थे। सन 1905 में वह बनारस में कांग्रेस में स्वयंसेवक के रूप में सम्मिलित हुए थे। गोपाल कृष्ण गोखले के भाषण का उन पर बहुत प्रभाव पड़ा था।

वकालत की परीक्षा पास करने के बाद गोविन्द बल्लभ ने कुछ दिन तक अल्मोड़ा और रानीखेत में वकालत करने के बाद काशीपुर, नैनीताल आ गये थे। काशीपुर में उनकी वकालत तो चली ही लेकिन सार्वजनिक कार्यो में वो अधिक सक्रिय हो गये थे। उनके अथक प्रयत्न से “कुमाऊँ परिषद” की स्थापना हुयी थी। गोविन्द बल्लभ पंत के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमाऊँ के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। उनके अथक प्रयत्न से “कुमाऊँ परिषद” की स्थापना हुयी थी। अंग्रेज़ शासकों ने उस समय काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया था। गोविन्द बल्लभ पंत के नेतृत्व के कारण अंग्रेज़ काशीपुर को ”गोविन्दगढ़“ कहती थी। सन 1914 में काशीपुर में ‘प्रेमसभा’ की स्थापना उनके प्रयासो से ही हुई थी। सभा का उद्देश्य शिक्षा और साहित्य के प्रति जनता में जागरुकता उत्पन्न करना था लेकिन ब्रिटिश शासकों ने समझा कि समाज सुधार के नाम पर यहाँ पर आतंकवादी कार्यो को प्रोत्साहन दिया जाता है। इसका परिणाम यह रहा कि इस सभा को हटाने के अनेक प्रयास किये गये परन्तु वह सफल नहीं हो पाये थे। इस संस्था का कार्य इतना व्यापक था कि ब्रिटिश स्कूलों ने काशीपुर से अपना बोरिया बिस्तर बाँधने में ही खैरियत समझी थी। सन 1914 में उनके प्रयासो से ही ‘उदयराज हिन्दू हाईस्कूल’ की स्थापना हुई थी। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने उस स्कूल के विरुद्ध डिग्री दायर कर नीलामी के आदेश जारी कर दिये। जब गोविन्द बल्लभ पंत को इस बात का पता चला तो उन्होंनें चन्दा मांगकर जुर्माना पूरा किया। सन 1916 में गोविन्द बल्लभ पंत काशीपुर की ‘नोटीफाइड ऐरिया कमेटी’ में शामिल हो गये। इसके बाद में वह कमेटी की ‘शिक्षा समिति’ के अध्यक्ष बने। कुमायूं में सबसे पहले निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय भी गोविन्द बल्लभ पंत को ही जाता है। उन्होंने कुमायूं में ‘राष्ट्रीय आन्दोलन’ को ‘अंहिसा’ के आधार पर संगठित किया था। प्रारम्भ से ही कुमाऊं के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व गोविन्द बल्लभ पंत के हाथों में रहा था। महात्मा गांधी ने “रोलेट एक्ट” के विरोध में सन 1920 में असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो गोविन्द बल्लभ पन्त ने वकालत को तिलांजली देकर आन्दोलन के रास्ते राजनैतिक क्षेत्र का चुनाव किया। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन की शुरुआत कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार और विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुई थी, इसके बाद असहयोग आन्दोलन की लहर कुमाऊं के साथ सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में छा गयी थी। परिषद के प्रयत्न से सन 1921 में कुमाऊँ में प्रचलित “कुली बेगार” जैसी अपमानजनक प्रथा का अंत हुआ था। गोविन्द बल्लभ पंत नैनीताल जिला बोर्ड के तथा काशीपुर नगर पालिका के अध्यक्ष चुने गये थे।

स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सन 1923 में वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद के चुनाव में सफल हुए और स्वराज्य पार्टी के नेता के रूप में उन्होंने अपनी धाक जमा दी थी। 9 अगस्त सन 1925 को काकोरी में उत्तर प्रदेश के कुछ क्रान्तिकारी नवयुवकों ने सरकारी खजाना लूट लिया था तो उनके मुकदमें की पैरवी के लिये अन्य वकीलों के साथ गोविन्द बल्लभ पन्त ने भी जी-जान से सहयोग किया था। उस समय वह नैनीताल से स्वराज पार्टी के टिकट पर लेजिस्लेटिव कौन्सिल के सदस्य थे। सन 1927 में महान क्रान्तिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ व उनके तीन अन्य साथियों को फाँसी के फन्दे से बचाने के लिये उन्होंने पण्डित मदन मोहन मालवीय के साथ वायसराय को पत्र भी लिखा था किन्तु महात्मा गांधी का समर्थन न मिल पाने से वह उस अभियान में कामयाब नहीं हो सके थे। सन 1927 में साइमन कमीशन के बहिष्कार और सन 1930 में नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया था। मई सन 1930 में देहरादून जेल की हवा भी खायी थी। सन 1921, सन 1930, सन 1932 और सन 1934 के स्वतंत्रता संग्रामों में गोविन्द बल्लभ पंत लगभग 7 वर्षों तक जेलों में रहे थे। उन्होंने काशीपुर में एक चरखा संघ की विधिवत स्थापना की थी।

सन 1934 में कांग्रेस ने विधायिकाओं का बहिष्कार समाप्त कर दिया और उम्मीदवारों को अपनाया तो वह केन्द्रीय विधान सभा के लिए चुने गए थे। उन्होंने अपने राजनीतिक कौशल से तत्कालिक नेताओं का दिल जीत लिया और वह विधानसभा में कांग्रेस पार्टी के उप नेता बने। 17 जुलाई सन 1937 से लेकर 2 नवम्बर सन 1939 तक वह ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रान्त अथवा उत्तर प्रदेश के पहले मुख्य मन्त्री बने थे। इसके बाद दोबारा उन्हें यही दायित्व फिर से सौंपा गया और वह 1अप्रैल सन 1946 से 15 अगस्त सन 1947 तक संयुक्त प्रान्त अर्थात उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे थे। जब भारतवर्ष का अपना संविधान बन गया और संयुक्त प्रान्त का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रखा गया तो फिर से तीसरी बार उन्हें ही इस पद के लिये सर्वसम्मति से उपयुक्त पाया गया था। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत के नवनामित राज्य के भी वह 26 जनवरी 1950 से लेकर 27 दिसम्बर 1954 तक मुख्यमन्त्री रहे। गोविन्द बल्लभ पंत को भूमि सुधारों में बेहद रुचि थी उन्होंने 21 मई सन 1952 को जमींदारी उन्मूलन क़ानून को प्रभावी बनाया था। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विशाल योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी। प्रशासनिक कुशलता, न्यायप्रिय सुधारों से उन्होंने सबसे अधिक जनसँख्या वाले राज्य की हालत को एकदम दुरुस्त किया था। उनकी उपलब्धियों में हिंदू संहिता विधेयक पारित कराना और हिंदू पुरुषों के लिए एकपत्नीत्व अनिवार्य बनाना था। उन्होंने हिंदू महिलाओं को तलाक और वंशानुगत संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार दिए थे। भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु के बाद उन्हें गृह मंत्रालय का दायित्व दिया गया था। गृहमंत्री के रुप में भारत को भाषा के आधार पर राज्यों में विभक्त करना व हिंदी को राजभाषा के तौर सम्मान दिलवाने में उनका मुख्य योगदान रहा था। भारत के गृहमंत्री रूप में उनका कार्यकाल सन 1955 से लेकर सन 1961 में उनकी मृत्यु होने तक रहा था। 7 मार्च सन 1961 को हृदयाघात से जूझते हुए उनका देहावसान हो गया था।

भारत के गृहमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के समय गोविन्द बल्लभ पंत को उनके मुख्यमंत्री और स्वतन्त्रता प्राप्ति संग्राम में योगदान के लिए 26 जनवरी सन 1957 को भारत के सर्वोच्च नागरिक अलंकरण भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। प्रसिद्ध देशभक्त राजनीतिज्ञ और आधुनिक उत्तर प्रदेश के निर्माण की नींव रखने वाले पंडित गोविन्द वल्लभ पंत की स्मृति में विभिन्न स्मारक और संस्थान जिनमें गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान प्रयागराज उत्तर प्रदेश, गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय पंतनगर उत्तराखण्ड, गोविन्द बल्लभ पन्त अभियान्त्रिकी महाविद्यालय पौड़ी गढ़वाल उत्तराखण्ड, गोविन्द बल्लभ पंत सागर सोनभद्र उत्तर प्रदेश, पण्डित गोविन्द बल्लभ पंत इण्टर कॉलेज काशीपुर, ऊधमसिंह नगर, उत्तराखंड आदि स्थापित किए गए हैं।

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