विनायक दामोदर सावरकर प्रथम क्रांतिकारी, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के मुख्य केन्द्र लंदन में भारत की स्वाधीनता हेतू उसके विरुद्ध सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन को संगठित किया था…

उत्‍तराखण्‍ड जीवन परिचय लेख सामाजिक चेतना के नायक हरिद्वार

हरिद्वार (पंकज चौहान) – सावरकर भारत के प्रथम क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के मुख्य केन्द्र लंदन में ही उसके विरुद्ध सशस्त्र क्रांतिकारी आंदोलन को संगठित किया था. वीर सावरकर वह प्रथम भारतीय नागरिक थे, जिन्होंने भारत के लिये पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की थी. वीर सावरकर भारत के वह प्रथम क्रांतिकारी लेखक थे, जिन्होंने सन 1857 के स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम को भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम बताते हुए लगभग एक हज़ार पृष्ठों का विस्तृत इतिहास सन 1907 में लिखा था. वीर सावरकर ने ही वह प्रथम भारतीय ध्वज तैयार किया था, जिसे जर्मनी में सन 1907 के अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस के अधिवेशन में मैडम भीकाजी कामा ने फहरा कर इतिहास बनाया था. वीर सावरकर भारत के पहले और दुनिया के एकमात्र लेखक थे, जिनकी पुस्तक को प्रकाशित होने के पहले ही भारत में ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश साम्राज्य की अन्य सरकारों ने प्रतिबंधित कर दिया था. वीर सावरकर भारत के पहले वह क्रांतिकारी लेखक, कवि थे, जिन्होंने कलम-काग़ज़ के बिना जेल की दीवारों पर ही पत्थर के टुकड़ों से कवितायें लिखीं, कहा जाता है उन्होंने अपनी रचित दस हज़ार से भी अधिक पंक्तियों को प्राचीन वैदिक साधना के अनुरूप वर्षों तक स्मृति में सुरक्षित रखा, जब तक वह किसी न किसी तरह देशवासियों तक नहीं पहुच गई. वीर सावरकर दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे, जिनका मुकदमा हेग के अंतराष्ट्रीय न्यायालय में चला था. वीर सावरकर प्रथम भारतीय क्रान्तिकारी थे, जिन पर स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी झूठा मुकदमा चलाया और बाद में निर्दोष साबित होने पर माफी मांगी. वीर सावरकर भारत के प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने सन 1905 में बंगाल विभाजन के पश्चात सन 1906 में स्वदेशी का नारा देकर विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी. वीर सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे, जिन्हें अपने विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी. वीर सावरकर प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने अनुसूचित जाति के दलित व्यक्ति को मंदिर का मुख्य पुजारी बनाया था. भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर उपाख्य वीर सावरकर महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता तो थे ही, ऐसे इतिहासकार भी थे, जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढँग से लिपिबद्ध किया. हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय वीर सावरकर को ही जाता है.

जन्म – 28 मई सन 1883 नासिक, महाराष्ट्र.
देहावसान – 26 फरवरी सन 1966 मुम्बई, महाराष्ट्र.

भारतीय क्रांतिकारियों के मुकुटमणि और भारत में हिंदुत्व के प्रणेता विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट भागुर गाँव में धार्मिक और राष्ट्रीय विचारों वाले दामोदर पन्त सावरकर एवं राधाबाई के घर 28 मई सन 1883 में हुआ था. वीर सावरकर के हृदय में छात्र जीवन से ही भारत को पराधीन करने वाली ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह के विचार उत्पन्न हो गए और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने मातृभूमि को स्वतंत्र कराने की प्रेरणा ली, इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया और शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर दी. वीर सावरकर ने कहा था – “स्वदेशी शब्दों को मिटाकर, विदेशी शब्दों का प्रयोग करना, अपने बच्चों को मारकर दत्तक पुत्र लेने समान है.”

सन 1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की. सन 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में पूना में विदेशी वस्त्रों कि होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की घोषणा की. लोकमान्य तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें लन्दन में रह रहे क्रान्तिधर्मा श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्ति मिली. लन्दन स्थित उनके इंडिया हाउस से जुड़ना वीर सावरकर के जीवन में मील का पत्थर सिद्ध हुआ क्योंकि यहाँ ना केवल उन्हें समान विचारधारा वाले लोगों से मिलने का अवसर मिला बल्कि अपने विचारों के प्रकटीकरण करने का उचित मंच भी प्राप्त हुआ था.


10 मई सन 1907 को श्याम कृष्ण वर्मा ने इडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई, जिस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित सन 1857 के संग्राम को गदर नहीं, अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किया. यह अपने आप में एक क्रांतिकारी घटना थी, क्योंकि इसके पहले इतिहासकार इस स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम को ब्रिटिश नजरिये से देखकर ग़दर या सिपाही विद्रोह की संज्ञा देते थे, परन्तु वीर सावरकर ने भारतीय नजरिये से इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की उपमा देकर सिद्ध किया, इस घटना के बाद इतिहासकारों में उस संघर्ष को देखने की एक नयी दृष्टि उत्पन्न हुयी, जिसका पूरा श्रेय वीर सावरकर को जाता है.


जून सन 1908 में मराठी भाषा में उनकी पुस्तक द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी किंतु इसके मुद्रण की समस्या आयी, इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु सभी प्रयास असफल रहे, बाद में कुछ उत्साही युवाओं ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद कर इसे गुप्त रूप से हॉलैंड से प्रकाशित कराया और फिर इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं. भारतीय क्रांतिकारियों की लिए यह पुस्तक श्रीमद्भागवत गीता के समान प्रेरणा देने वाली सिद्ध हुयी और इसकी लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके कई संस्करण प्रकाशित किये गए. हालैंड में प्रकाशित प्रथम संस्करण के बाद इसका द्वितीय संस्करण अमेरिका में ग़दर पार्टी के लाला हरदयाल ने, तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह ने और चतुर्थ संस्करण सुदूर पूर्व में सुभाषचंद्र बोस ने प्रकाशित करवाया. देश की कई भाषाओँ में इसका अनुवाद किया गया और क्रांतिपथ के राही इसे अपने प्रेरणाश्रोत के रूप में स्वीकार करने लगे. मराठी भाषा में लिखी मूल प्रति पेरिस में मैडम भीखाजी कामा के पास सुरक्षित रही, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय फ़्रांस के हालात बिगड़ने पर अभिनव भारत के डाक्टर कौतिन्हो को सौंप दिया था. लगभग चालीस वर्षों तक किसी सर्वोच्च धार्मिक ग्रन्थ की तरह सुरक्षा करने के बाद उन्होंने इसे श्री रामलाल बाजपेयी और डाक्टर मुंजे को सौंप दिया जिनसे ये मूल प्रतिलिपि पुनः भारत में वीर सावरकर को प्राप्त हुयी. वीर सावरकर ने कहा था – “स्वधर्म के अभाव मे स्वराज्य भी त्याज्य हैं और स्वराज्य के न होने पर स्वधर्म भी बलहीन होता है, स्वधर्म संस्कृति का तथा स्वराज्य अस्मिता का प्रतीक ध्वज होता है. स्वराज्य और स्वधर्म के साधन और साध्य का यह तत्व भारत के स्वतन्त्रता प्राप्ति के क्रान्ति युद्व में भी अभिव्यक्त हुआ था.”

मई सन 1909 में सावरकर ने लन्दन से बार एट ला वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की, परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली. वीर सावरकर ने अंग्रेजों के मुख्य केंद्र लन्दन में भी भारत की स्वतंत्रता क्रांति की ज्वाला को कभी बुझने नहीं दिया और उन्हीं की प्रेरणा से महान क्रांतिकारी मदनलाल धींगरा ने लॉर्ड कर्जन का वध करके भारतीयों के अपमान का प्रतिशोध लिया था. वीर सावरकर की क्रांतिकारी गतिविधिओं और लेखों से ब्रिटिश लन्दन भी काँप उठा और अंततः 13 मार्च सन 1910 को उन्हें लन्दन में गिरफ्तार कर लिया गया. 8 जुलाई सन 1910 को जब उन्हें लंदन से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था, उस समय वह सिपाहियों को चकमा देकर समुद्र में छलांग लगाकर तैरते हुए फ़्रांस के मार्सेलिस के सागर तट की दीवार पर चढ़कर मार्सेलिस बंदरगाह पर जा पहुंचे, उनके इस साहसी कार्य के कारण पूरा विश्व हिल उठा था तथा वैश्विक प्रतिक्रिया होकर पूरे विश्व का ध्यान भारत में चल रहे स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम की ओर आकर्षित हुआ. सावरकर का समुद्र में छलांग लगाकर मार्सेलिस पहुँचने का उपक्रम ब्रिटिशों द्वारा उन्हें अवैध तरीके से पुनः हिरासत में लेने के कारण विफल भले ही रहा हो फिर भी उनकी इस दुस्साहसी छलांग के कारण पूरे विश्व में तहलका मच गया और जो तीव्र वैश्विक प्रतिक्रिया हुई उसका फ्रांस की आंतरिक राजनीति पर दूरगामी परिणाम हुआ था, संपूर्ण विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी जनमत ने फ्रांस के रुख को नापसंद किया, आगे चलकर फ्रांस के प्रधानमंत्री को इस मामले में इस्तीफा देना पडा था. वीर सावरकर को फिर से फ्रांस सरकार को सौंपने की मांग पूरे फ्रांस ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में हुई, इस तीव्र प्रतिक्रिया से फ्रांस के सार्वभौमत्व को आंच पहुंची और और फ़्रांस में ब्रिटिश सरकार की असंवैधानिक कार्यवाही के विरोध में आन्दोलन शुरू हो गया जिसका समर्थन विश्व भर के जाने माने लोगों ने किया. अनवरत तीव्र आलोचना के कारण ब्रिटेन को झुकना पडा और वीर सावरकर की फ्रांस की भूमि पर किए गए अवैध हिरासत के मामले को अंतर्राष्ट्रीय हेग न्यायालय को सौंपने का करार करना पडा. वीर सावरकर के इस महान पराक्रम से पूरी दुनिया हिल उठी और भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम को भी संपूर्ण विश्व में प्रसिद्धि एवं स्वीकार्यता प्राप्त हुई. वीर सावरकर पर मुकदमा चलाकर 24 दिसंबर सन 1910 को आजीवन कारावास की सजा दी गयी, 31 जनवरी सन 1911 को इन्हें दोबारा एक बार दोबारा आजीवन कारावास का दंड दिया गया. वीर सावरकर को भारत को पराधीन रखने वाली ब्रिटिश सरकार ने सर्वकालिक महान किंतु दुस्साहसी क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी.


नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन के वध के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अंतर्गत इन्हें 7 अप्रैल सन 1911 को काला पानी की सजा के लिए अंडमान निकोबार द्वीप समूह में सेलुलर जेल भेजा गया, जहाँ कारावास में ही इक्कीस वर्षों बाद वीर सावरकर की मुलाकात अपने बड़े भाई से हुई, जब वे दोनों कोल्हू से तेल निकालने के बाद जमा कराने के लिए पहुंचे थे. मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपार कष्ट सहते और अपने को तिल तिल गलाते वीर सावरकर 4 जुलाई सन 1911 से 21 मई सन 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे. सन 1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर दोबारा तीन साल का कठिन कारावास भोगा.

वीर सावरकर ने स्वयं को हिंदुत्व के लिए समर्पित कर दिया था क्योंकि उनको अनुभूति हो चुकी थी कि सशक्त हिन्दू के बिना सशक्त भारत नहीं बन सकता. वीर सावरकर ने हिन्दुओ के सैन्यकरण की वकालत की और इस हेतु घूम घूम कर हिन्दुओं को सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जिसके सदपरिणाम बाद में सामने आये, जो उनकी दूरदृष्टि को सिद्ध करते हैं. वीर सावरकर की सलाह पर ही सुभाष चंद्र बोस भारत से चुपचाप निकल कर विदेश चले गए और आज़ाद हिन्द फ़ौज के माध्यम से देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष और लड़ाई लड़ी. 15 अगस्त सन 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई तो वीर सावरकर ने कहा था – “मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परंतु इसका दुख है कि वह खंण्डित है. देश की सीमाये नदी और पहाडो या संधिपत्रो से निर्धारित नहीं होती, वे देश के नवयुवको के शोर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं.”

5 फरवरी सन 1948 को वीर सावरकर पर गांधी वध का आरोप लगाकर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे उन्हें बाद में न्यायालय के माध्यम से मुक्ति मिली. मई सन 1952 में पुणे, महाराष्ट्र की एक विशाल सभा में उन्होंने अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्ण होने पर भंग कर दिया. वीर सावरकर ने कहा था – “हे मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ. देश सेवा में ईश्वर सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की.”

वीर सावरकर को देश के असंख्य महान क्रान्तिकारियों की असमय मृत्यु, देश की तत्कालीन विकट परिस्थितियों और सरकारी उदासीनता ने उनके शरीर को तोड़ कर रख दिया था और जिससे उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा था. 1 फरवरी सन 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया और 26 फरवरी सन 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने नश्वर शरीर को त्याग दिया.

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