हरिद्वार (पंकज चौहान) – अट्ठारहवीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन के समय भारत के कुमाऊँ-गढ़वाल मंडलों में कथित जातिवादी उत्पीड़न अपने चरम पर था। मुंशी हरिप्रसाद टम्टा का नाम उन राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं में प्रमुखता से लिया जाता हैं, जिन्होंने इस सामाजिक भेदभाव के खिलाफ कठिन लड़ाई लड़ी और दलितों के उत्थान के लिए काम किया था। मुंशी हरिप्रसाद टम्टा जैसे योद्धाओं की वजह से ही वर्तमान उत्तराखण्ड में दलित समुदायों की स्थिति पहले से बेहद उत्कृष्ट दिखाई देती है।
जन्म – 26 अगस्त सन 1887 अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड.
देहावसान –23 फरवरी सन 1960 तत्कालीन इलाहाबाद वर्तमान प्रयागराज, उत्तर प्रदेश.
हरिप्रसाद टम्टा का जन्म 26 अगस्त सन 1887 को अल्मोड़ा के गोविन्द प्रसाद एवं गोविंदी देवी के घर हुआ था। इनके परिवार ने सामाजिक राजनीतिक संघर्षों में ही नहीं वरन उद्योग, व्यापार के क्षेत्र में भी ख़ासा नाम कमाया था। हरिप्रसाद के पिता ताम्र शिल्पी और व्यापारी थे, स्थानीय व्यापार में अच्छा दखल होने की वजह से ये अल्मोड़ा के संपन्न और सम्मानित परिवारों में से थे। 14 साल की उम्र में हरिप्रसाद टम्टा की शादी पार्वती देवी से हुई थी। कम उम्र में ही इनके पिता का देहांत होने की वजह से उन्हें अपने मामा कृष्णा टम्टा के संरक्षण में आना पड़ा, जो कि बड़े व्यापारी होने के साथ सामाजिक कामों में भी सक्रिय रहा करते थे। मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई बहुत कठिनाइयों से पूरी करने के बावजूद हरिप्रसाद टम्टा ने अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी और उर्दू भाषा में महारथ हासिल की थी। कई भाषाओं का विद्वान होने की वजह से उन्हें मुंशी की उपाधि मिली थी। तत्कालीन समय में कुमाऊँ क्षेत्र में दलितों–अछूतों के लिए शिक्षा ग्रहण कर पाना बेहद मुश्किल कार्य था। उस समयकाल में दलित–अछूत जातियों का जातीय उत्पीड़न व सामाजिक तिरस्कार होता था। इस तिरस्कार और जातिसूचक और अपमानजनक शब्दों के हमलों ने हरिप्रसाद टम्टा के इस संकल्प को और मजबूत किया कि छुआछूत के उन्मूलन और दलितों के उत्थान के लिए और अधिक ठोस कदम बढ़ाने हैं।
सन 1905 में दलित–अछूतों के सामाजिक उन्नयन के लिए हरिप्रसाद टम्टा ने टम्टा सुधार सभा का गठन किया था। टम्टा सुधार सभा के उद्देश्य – शोषित जातियों के बीच शिक्षा का प्रचार-प्रसार, कला और शिल्पकला के क्षेत्र में युवाओं को प्रेरित करना, पहाड़ी इलाकों में कुटीर उद्योगों की स्थापना, लोगों को बेहतर स्वास्थ्य के लिए जागरूक करना, युवाओं के मानसिक विकास के लिए योजनायें बनाना, सामाजिक पिछड़ेपन के खिलाफ जागरूकता फैलाना, युवाओं के बीच नैतिक शिक्षा का प्रचार, रोजगार के माध्यम ढूंढने के साथ युवाओं के बीच स्वरोजगार को बढ़ावा देना था। हरिप्रसाद टम्टा के अथक प्रयासों की वजह से सन 1913 में लाला लाजपत राय ने एक कार्यक्रम में सबसे पहले दलितों–अछूतों के लिए शिल्पकार शब्द का इस्तेमाल किया और समाज के सभी वर्गों से भी इसी शब्द का इस्तेमाल करने को कहा था। उन्होंने अछूतों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले अपमानजनक शब्दों के इस्तेमाल की भरपूर निंदा भी की थी। सन 1914 में टम्टा सुधार सभा का नाम बदलकर कुमाऊँ शिल्पकार सभा कर दिया गया था। हरिप्रसाद टम्टा सर्वसम्मति से इसके अध्यक्ष चुने गए और वह ताउम्र अध्यक्ष बने रहे थे। शिल्पकार सभा ने सरकार से मांग की कि – कुमाऊँ में मुफ्त अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दी जाये, कुमाऊं के शिल्पकार मुस्लिमों की तरह ही पंचायत, डिस्ट्रिक्ट और म्युनिसिपल बोर्ड में अपना प्रतिनिधि भेज सकें, पंजाब प्रान्त की तरह ही भूमिहीन शिल्पकरों को खेती की जमीन दी जाये, शिल्पकारों के लिए ज्यादा संख्या में स्कूल खोले जाएँ, उत्तराखण्ड के अछूतों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले अपमानजनक शब्द डूम को प्रतिबंधित किया जाये और सरकारी कामकाज में इसकी जगह तत्काल शिल्पकार शब्द का इस्तेमाल होना चाहिए, सर्वकुमाऊनी शिल्पकार सम्मलेन की एक शाखा खोली जाये जिसका काम बाल विवाह उन्मूलन होना चाहिए, विधवा विवाह को बढ़ावा, नशे से बचाव, बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा और हस्तशिल्प इत्यादि को बढ़ावा देना होना चाहिए। सामाजिक सुधारों के अलावा व्यापार के क्षेत्र में भी हरिप्रसाद टम्टा बहुत दूरदर्शी थे। सन 1920 में उन्होंने हिल मोटर्स ट्रांसपोर्ट कंपनी की स्थापना की थी. उस समय कुमाऊं के हल्द्वानी से पर्वतीय क्षेत्र की ओर पैदल ही जाया जाता था। हरिप्रसाद टम्टा की ट्रांसपोर्ट कंपनी अल्मोड़ा से नैनीताल और हल्द्वानी के लिए मोटर का सञ्चालन करने वाली पहली ट्रांसपोर्ट कंपनी थी। उन्होंने हल्द्वानी में वाहन प्रशिक्षण केंद्र खोलकर ड्राइविंग के लिए लोगों को ट्रेंड करना भी शुरू किया था। उन्होंने सन 1925 में अल्मोड़ा में दलित समाज का बड़ा सम्मेलन करके उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने और उनके नाम के पीछे राम, प्रसाद, कुमार, लाल, चंद्र आदि उपनाम या मध्य नाम लिखवाने का आवाहन किया था। उन्होंने सभी दलित–अछूतों को जनेऊ धारण करवा कर शिक्षा देना शुरू किया था। उन्होंने दलित–अछूत समाज के लिए 150 से अधिक स्कूल–विद्यालय खुलवाए थे। मुंशी हरिप्रसाद टम्टा के अनवरत कठिन संघर्ष के पश्चात सन 1926 में ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं क्षेत्र के अछूत–दलितों के लिए शिल्पकार शब्द के इस्तेमाल को औपचारिक मान्यता देकर शिल्पकार सभा की लगभग सभी मांगों को मान लिया था। सन 1931 की जनगणना के बाद समस्त दलित जातियों के लिए अलग–अलग जाती की जगह एक मात्र शब्द “शिल्पकार” लिखा जाने लगा था। सन 1931 में हरिप्रसाद ने गोलमेज सम्मेलन में पूना पैक्ट के लिए बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर का समर्थन करते हुए लंदन एक तार भेजा था। सन 1934 में उन्होंने हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र समता का प्रकाशन शुरू किया था। समता समाचार पत्र के 6 मई सन 1935 के सम्पादकीय में हरिप्रसाद टम्टा लिखते हैं कि “पच्चीस साल का लम्बा अरसा गुजर जाने के बाद भी मैं अब तक सन 1911 के उस वाकये को नहीं भूल पाया। जब मुझे और मेरे भाई को एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सम्मिलित होने का हक हासिल नहीं हो पाया था। मैं उन भाइयों का लाख-लाख शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मुझे और मेरे भाइयों को सोते से जगा दिया। इन्हीं बातों की बदौलत मेरे दिल में इस बात की लौ लगी है कि मैं अपने समाज को इतना उठा दूँ कि लोग उन्हें हिकारत की निगाह से नहीं बल्कि मोहब्बत और बराबरी की नजर से देखें।”
हरिप्रसाद टम्टा की समाज सेवा और शोषितों को न्याय दिलाने की ललक से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने उन्हें सन 1935 में रायबहादूर की उपाधि प्रदान की थी। हरिप्रसाद टम्टा के अथक प्रयासों के फलस्वरूप सन 1935 से पिछड़ी जाती के लोगों को पुलिस, चपरासी, अर्दली, माली आदि पदों में नौकरी दी जाने लगी थी। सन 1938 से दलित–अछूत समाज के लोगों के लिए सेना में भर्ती की शुरुआत भी हरिप्रसाद टम्टा के अथक प्रयासों का परिणाम था। हरिप्रसाद टम्टा सन 1942 से सन 1945 तक नगरपालिका अल्मोड़ा के अध्यक्ष भी रहे और इसके बाद उनका चयन जिला परिषद में भी हुआ था। हरिप्रसाद टम्टा ने अपने जीवनकाल में अछूत–दलित समाज की महिलाओं के हितार्थ भी अनेक सामाजिक कार्य भी किये थे।हरिप्रसाद टम्टा दलित–अछूतों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले अकेले नहीं थे वरन उनका सम्पूर्ण परिवार ही इस सामाजिक लड़ाई में क्षेत्र का अगुआ था। हरिप्रसाद टम्टा की भतीजी लक्ष्मी देवी टम्टा उत्तराखण्ड की प्रथम दलित स्नातक होने के साथ–साथ समता समाचार पत्र की सम्पादक होने की वजह से उत्तराखंड की प्रथम महिला समाचार सम्पादक भी थी। हरिप्रसाद टम्टा पहाड़ों में दलित चेतना के अग्रदूत थे, 23 फरवरी सन 1960 को तत्कालीन इलाहाबाद वर्तमान प्रयागराज में अपनी देह त्यागने तक वह निरंतर अछूत–दलितों के उद्धार के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे। वर्तमान उत्तराखण्ड में अछूत–दलितों के संघर्ष के इतिहास में हरिप्रसाद टम्टा के विचारों से ही प्रेरणा प्राप्त करते हैं और भविष्य में भी प्राप्त करते रहेंगे। हरिप्रसाद टम्टा वर्तमान उत्तराखंड के पीड़ित–वंचित–शोषित अछूत–दलित समाज के लोगो के लिए एक अवतार से कदापि कम नहीं थे। हरिप्रसाद टम्टा के अछूत–दलित समाज के लिए किये गए अभूतपूर्व उत्थान कार्यों के लिए लोग उन्हें उत्तराखंड के बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर तक कहते हैं।